News Agency : देश की आजादी के सात दशक और झारखंड गठन के डेढ़ दशक बाद भी आदिवासियों के दर्जनों सवाल आज भी अनुत्तरित हैं। कई मामलों में वे आज भी हाशिये पर हैं। बतौर कल्याण मंत्री एक बार और बतौर मुख्यमंत्री तीन बार राज्य का प्रतिनिधित्व कर चुके अर्जुन मुंडा को केंद्र में जनजातीय मामलों का मंत्री बनाया गया है। ऐसे में यहां के जनजातीय समाज को उनसे बड़ी अपेक्षाएं स्वाभाविक है।चूंकि अर्जुन मुंडा झारखंड से ही आते हैं और आदिवासी समाज के मौजूदा हालात से भलीभांति परिचित हैं, लिहाजा उन्हें आदिवासी समाज की मौजूदा समस्याओं से जूझना भी होगा और इसका समाधान ढूंढना भी होगा।इधर, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने भी राज्य सरकार को पत्र लिखकर जनजाति समुदाय की कई समस्याओं की ओर ध्यान आकृष्ट कराया है।जनजाति आयोग ने पत्थलगड़ी को लेकर सरकार को जहां संवेदनशील होने को कहा है, वहीं राज्य की स्थानीयता नीति और आरक्षण के प्रावधानों को अनुसूचित क्षेत्रों में सही तरीके से लागू करने को कहा है। आयोग ने इसी तरह आदिवासियों के जाति प्रमाणपत्र के लिए महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की नीति अपनाने की नसीहत सरकार को दी है। जनजातियों की आर्थिक स्थिति को समृद्ध करने के निमित्त सरकार के स्तर पर होने वाली कुल खरीदारी का चार फीसद हिस्सा आदिवासियों से खरीदे जाने की सलाह दी है। बतौर कल्याण मंत्री उन्हें इसपर भी फोकस करना होगा।पांचवीं अनुसूची राज्यों में शामिल झारखंड में पेसा यानी कि पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम-1996 आज तक प्रभावी नहीं हो सका।
आदिवासियों की मिनी एसेंबली कही जाने वाली जनजातीय परामर्शदातृ परिषद की आजतक नहीं बन सकी है नियमावली।आदिवासी भूमि की खरीद-बिक्री में थाना क्षेत्र की बाध्यता खत्म करने का मामला आज भी पड़ा है ठंडे बस्ते में।जीवंत है केंद्र की ही तर्ज पर राज्य में भी अलग से आदिवासी कल्याण मंत्रालय के गठन का मुद्दा।जनजातीय आयोग के गठन को भी राज्य में नहीं मिल सका है आधार।